"मृत्यु का मोल" ( व्यंग्य कविता) अंजान मरे — तो चुपचाप साइड से निकल लो, ना आँसू, ना सवाल — बस भीड़ में खुद को बचा लो। पड़ोसी मरे — तो पूछ लो संस्कार का समय, कंधा न सही, कम से कम दिखा दो थोड़ा नमन। जान-पहचान वाला गया — तो फेसबुक पर "ॐ शांति" लिख दो, दिल से नहीं, टाइपिंग स्पीड से दुख नाप लो। कोई अपना गया — तो आँसू भी प्रॉपर्टी के वजन से गिरते हैं, ग़म भी वसीयत के काग़ज़ों में सुकून ढूंढता फिरता है। और जब आप मरें — तो सोचो, कौन रोएगा सच में? कौन होगा जो तुम्हारे बिना रातों को जागेगा? मौत तो सबकी बराबर होती है — पर इस दुनिया में दुख भी रिश्तों के रैंक से बाँटा जाता है। डॉ दिलीप बच्चानी पाली मारवाड़,राजस्थान।
हे! मोबाईल तुम वाकई एक क्रांति हो। पलक झपकते ही, पहुंचा देते हो सूचनाएं सात समंदर पार। कहा क्या अच्छा-बुरा हुआ सभी तो पता है तुम्हे। हजारो संदेशो का आदान-प्रदान,वाकई बड़ा करामाती काम है। पर हे! मोबाईल बुरा न मानो तो एक बात कहु। तुम अखबार हो, तुममे वो चिठ्ठियों वाली मिठास नही है।