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मृत्यु का मोल। (कविता)

"मृत्यु का मोल" ( व्यंग्य कविता) अंजान मरे — तो चुपचाप साइड से निकल लो, ना आँसू, ना सवाल — बस भीड़ में खुद को बचा लो। पड़ोसी मरे — तो पूछ लो संस्कार का समय, कंधा न सही, कम से कम दिखा दो थोड़ा नमन। जान-पहचान वाला गया — तो फेसबुक पर "ॐ शांति" लिख दो, दिल से नहीं, टाइपिंग स्पीड से दुख नाप लो। कोई अपना गया — तो आँसू भी प्रॉपर्टी के वजन से गिरते हैं, ग़म भी वसीयत के काग़ज़ों में सुकून ढूंढता फिरता है। और जब आप मरें — तो सोचो, कौन रोएगा सच में? कौन होगा जो तुम्हारे बिना रातों को जागेगा? मौत तो सबकी बराबर होती है — पर इस दुनिया में दुख भी रिश्तों के रैंक से बाँटा जाता है। डॉ दिलीप बच्चानी  पाली मारवाड़,राजस्थान।
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हे!मोबाईल। (कविता)

हे! मोबाईल तुम वाकई एक क्रांति हो।  पलक झपकते ही, पहुंचा देते हो  सूचनाएं सात समंदर पार।  कहा क्या अच्छा-बुरा हुआ सभी तो पता है तुम्हे।  हजारो संदेशो का आदान-प्रदान,वाकई बड़ा करामाती काम है।  पर हे! मोबाईल बुरा न मानो तो एक बात कहु।  तुम अखबार हो, तुममे वो चिठ्ठियों वाली मिठास नही है। 

दुआए।

मंदिरो, मजारो पर बंधे है लाखो धागे, बेटियो की खुशहाली के, उनके सुखद पारिवारिक जीवन के, पर क्यो नही बांधे जाते उनके अच्छे कैरियर, कामयाबी और प्रमोशन के लिए। कितने गुरुद्वारों में पढ़ी जाती है बेटियो की सफलता की अरदास। हमने हजारो बार दिए है, बेटियो को सौभाग्यशाली होने के आशीर्वाद। आखिर हम कब देंगे उन्हें सफल औऱ समर्थ होने कि आशीष। 

गजल

आवरण में है छुपे विष के चेहरे कोई कैसे जान पाए भेद गहरे। एक छटपटाहट गहराई में गर्त है तभी किनारो से लड़ रही है लहरे।  इस शहर को अब सवांरा जाएगा ये मुनादी कर रहे है लोग बहरे।  एक अजब ही दौड़ जारी है यहाँ कोई आखिर सुकूँ से कैसे ठहरे। इक अदद सी कामयाबी के लिए कितनो को पहनाऊँ यहाँ सेहरे।  क़ायनात पे गर बस उनका चलता वो लगा देते हमारी सासों पे पहरे। 
अचानक नही टूटा हूं कब से दरक रहा था। कोई समझ नही पाया नजर का फरक रहा था। कही उसे देख न लू चुपके से सरक रहा था।

गजल

क्या नही है दातार के दर पर बिन मांगे झोलियाँ भर देता है। कुछ कहने की जरूरत नही वो पहले ही काम कर देता है। जैसी होती है भावना जिसकी वो वैसे ही उसको वर देता है। वो देता है पेट भरने को अन्न ऒर वो रहने को घर देता है। वो ही है जो सुनता है सबकी वो ही दुआओं में असर देता है। खुशनुमा शामें भी उसी ने दी  और वो सुहानी सहर देता है। उसी ने थामा है हाथ सबका वो ही सुकून के पहर देता है।

एकता की डोर।

भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी पहचान उसका परिवार है। यहाँ रिश्ते सिर्फ खून के नहीं, बल्कि भावनाओं और संस्कारों से भी जुड़े होते हैं। संयुक्त परिवार की परंपरा भारतीय समाज की रीढ़ रही है, जहाँ तीन-चार पीढ़ियाँ एक साथ रहती हैं, एक-दूसरे का सहारा बनती हैं और जीवन मूल्यों को आगे बढ़ाती हैं। ऐसे ही संस्कार शर्मा परिवार में भी कूट कूट कर भरे हुए थे। जहाँ सभी लोग एक दूसरे का सम्मान करते हुए सामंजस्य के साथ सौहार्दपूर्ण वातावरण में साथ साथ रहते थे।  शर्मा परिवार शहर का एक सम्मानित,जाना पहचाना परिवार था,जिसके मुखिया देवनारायण जी शर्मा रिटायर्ड बैक मैनेजर थे। दोनो बेटे अजय और विनोद सरकारी कर्मचारी,अजय बैंक में तो विनोद अध्यापक के पद पर कार्यरत थे।  घर की रीढ़ की हड्डी थी देवनारायण शर्मा जी की पत्नी सरस्वती जिनके इर्द गिर्द इस परिवार की ग्रहस्ती चलती थी। दोनो बहुए सास का घर के काम मे बखूबी हाथ बटाती तथा नित रोज भांति भांति के व्यंजन पकते, पूरा परिवार एक साथ बैठकर उन व्यंजनों का आनंद लेता।  सुबह की सामुहिक पूजा से शुरू होने वाला दिन हँसी खुशी कैसे बीतता पता ही नही चलता।  पर वो कहते ...