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Showing posts from December, 2020

संवेदना विसर्जन (लघुकथा)

शीर्षक- *संवेदना विसर्जन*  पीतल के नए चमचमाते कलश में राख में लिपटी जली हुई हड्डियां जिनके ऊपर कुछ फूलों की पंखुड़िया रखी थी और लाल कपड़े से कलश का मुंह बंद कर दिया गया था।  ट्रेन के हिचकोलों के बीच एक हड्डी दूसरी से पूछ बैठी,"बहन! तुम किस अंग का हिस्सा हो?" "मैं दाएं हाथ की मेटाकार्पल हूँ जब तक चलने फिरने की अवस्था थी तब तक मेरी द्वारा पकड़ी हुई छड़ी के सहारे ही वो चलते थे।  औऱ तुम?"    " मैं घुटने का *पटेला* हूँ सबसे पहले शरीर में पीड़ा *घुटनों* से ही शुरू हुई थी।" तभी एक तिकोनी सी हड्डी पर नजर पड़ी,कोई कुछ पूछता उससे पहले ही वो बोल पड़ी- "मै कमर की लम्बर वर्टिब्रा हूँ *।* मेरे ही आस पास कमर में घाव पड़ गया था, फिर मवाद, फिर कीड़े औऱ उसी पीड़ा ने आखिर में जान ले ली।  वो जो पट्टी करने डॉक्टर आता था, उसने कितना कहा कि वॉटर बेड या एयर बेड की व्यवस्था कर लीजिए घाव नही पड़ेंगे। पर सुनता कौन।" तभी दिमाग की फ्रोन्टल बोन ने कहा- "अब ये हमे ले जा रहे है हरिद्वार, जहाँ होगा पूजा पाठ, नदी में अस्थि विसर्जन, फिर वापस आकर ब्राह्मण भोज,हवन,दान,गंगा प्रसादी लाखो का...

गीत

मन की बाते कह देते हो तुम भी मेरे जैसे हो  बाहर भीतर कोई ना अंतर तुम दर्पण के जैसे हो | जैसे बहता निश्छल दरिया तुम दरिया से बहते हो जैसे बढ़ता कोई पौधा तुम तरुवर के जैसे हो | सागर के भीतर सन्नाटा फिर भी जीवन पलता है दुनिया वाले समझ ना पाये तुम क्यों तन्हा रहते हो | तेरी भाषा कोई ना समझे तेरी बोली अनजानी मन मिलने की देर है बस फिर उंगली थामे रहते हो | तेरी सूरत उस मूरत सी जिसको दुनिया चाहे है जीवन की आपाधापी में तुम मंजिल के जैसे हो |                   दिलीप बच्चानी                   पाली मारवाड़ राजस्थान