मन की बाते कह देते हो
तुम भी मेरे जैसे हो
बाहर भीतर कोई ना अंतर
तुम दर्पण के जैसे हो |
जैसे बहता निश्छल दरिया
तुम दरिया से बहते हो
जैसे बढ़ता कोई पौधा
तुम तरुवर के जैसे हो |
सागर के भीतर सन्नाटा
फिर भी जीवन पलता है
दुनिया वाले समझ ना पाये
तुम क्यों तन्हा रहते हो |
तेरी भाषा कोई ना समझे
तेरी बोली अनजानी
मन मिलने की देर है बस फिर
उंगली थामे रहते हो |
तेरी सूरत उस मूरत सी
जिसको दुनिया चाहे है
जीवन की आपाधापी में
तुम मंजिल के जैसे हो |
दिलीप बच्चानी
पाली मारवाड़ राजस्थान
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