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Showing posts from April, 2021

कोरोना

जब एक एक सांस उखड़ती सी लगती है जब एक के बाद दूसरी सांस पहाड़ चढ़ने जैसी बदन टूटता मानो मीलो चले हो हम अपने से ज्यादा सताती अपनो की फिक्र हमे नर्म बिस्तर लगता हैं शरशैय्या जैसा  भूख कही खो जाती प्यास भी नही लगती अजब बीमारी है इलाज कुछ नहीं। 

गजल।

घने तिमिर में उजाले की किरण चाहिए जंग को जीतने का प्रबल प्रण चाहिए।  सांस खुलकर फिर से हम सब ले सके बस वही सुकून भरा एक क्षण चाहिए।  ठाकुर को थाली भरी से सरोकार क्या उसे तो प्रेम से भरा एक कण चाहिए।  नाम तो तुम रख सकते हो बड़े से बड़े बड़ा होने को प्रतिभा विलक्षण चाहिए।  यहाँ पसीना बहाना कोई नही चाहता परिणाम तो सभी को तत्क्षण चाहिए।  दिलीप कलम तुम्हारी बस चलती रहे हमे तो अपना इरादा बस द्रण चाहिए। 

वर्ष प्रतिपदा (कविता)

माँ दुर्गा की आराधना से हम मनाते वर्ष प्रतिपदा हे! मेरे अतुल्य भारत तेरी जगत में जय हो सदा।  ऋतु चक्र अनुकूल पंचांग हमारा है सबसे जुदा हे! मेरे वंदनीय भारत तेरी जगत में जय हो सदा।  प्रकृति भी सजती सँवरती निखरती हर एक लता हे! मेरे पूज्यनीय भारत तेरी जगत में जय हो सदा पावन चैत्र माह में त्यौहारों की रही पावन प्रथा हे! मेरे अतुलनीय भारत तेरी जग में जय हो सदा।  गुड़ी पड़वा, चेटीचंड की चहुँ ओर बिखरती छटा हे! मेरे प्यारे भारत तेरी जगत में जय हो सदा।                          डॉ दिलीप बच्चानी                         पाली मारवाड़, राजस्थान। 

पहेली(कविता)

बचपन से जूझते आये है हम इन पहेलियों के साथ कुछ हल हो जाती है खेल खेल में झट से।  कुछ हल होती है किसी और कि सहायता के साथ।  कुछ बनी होती है शायद कभी हल न होने के लिए।  कभी कभी तो लगता हैं पहेली शब्द पर्यायवाची है जीवन का।