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Showing posts from March, 2025

गजल

क्या नही है दातार के दर पर बिन मांगे झोलियाँ भर देता है। कुछ कहने की जरूरत नही वो पहले ही काम कर देता है। जैसी होती है भावना जिसकी वो वैसे ही उसको वर देता है। वो देता है पेट भरने को अन्न ऒर वो रहने को घर देता है। वो ही है जो सुनता है सबकी वो ही दुआओं में असर देता है। खुशनुमा शामें भी उसी ने दी  और वो सुहानी सहर देता है। उसी ने थामा है हाथ सबका वो ही सुकून के पहर देता है।

एकता की डोर।

भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी पहचान उसका परिवार है। यहाँ रिश्ते सिर्फ खून के नहीं, बल्कि भावनाओं और संस्कारों से भी जुड़े होते हैं। संयुक्त परिवार की परंपरा भारतीय समाज की रीढ़ रही है, जहाँ तीन-चार पीढ़ियाँ एक साथ रहती हैं, एक-दूसरे का सहारा बनती हैं और जीवन मूल्यों को आगे बढ़ाती हैं। ऐसे ही संस्कार शर्मा परिवार में भी कूट कूट कर भरे हुए थे। जहाँ सभी लोग एक दूसरे का सम्मान करते हुए सामंजस्य के साथ सौहार्दपूर्ण वातावरण में साथ साथ रहते थे।  शर्मा परिवार शहर का एक सम्मानित,जाना पहचाना परिवार था,जिसके मुखिया देवनारायण जी शर्मा रिटायर्ड बैक मैनेजर थे। दोनो बेटे अजय और विनोद सरकारी कर्मचारी,अजय बैंक में तो विनोद अध्यापक के पद पर कार्यरत थे।  घर की रीढ़ की हड्डी थी देवनारायण शर्मा जी की पत्नी सरस्वती जिनके इर्द गिर्द इस परिवार की ग्रहस्ती चलती थी। दोनो बहुए सास का घर के काम मे बखूबी हाथ बटाती तथा नित रोज भांति भांति के व्यंजन पकते, पूरा परिवार एक साथ बैठकर उन व्यंजनों का आनंद लेता।  सुबह की सामुहिक पूजा से शुरू होने वाला दिन हँसी खुशी कैसे बीतता पता ही नही चलता।  पर वो कहते ...
अहसास को भी क्या बांध जा सकता है किसी गणित किसी व्यकरण मे  किसी कौमा, ब्रेकेटिंवर्टेड कौमा में।  अहसास तो एक समुदर है जहा है पानी रेत और नारियल पानी। 

गजल

जहाँ मौत के बाद के सपने बेचे जाते है वो किस्से यहाँ मजहब कहलाए जाते है। जीते जी दो घूट भी पीना हराम है जिन्हें उन्हें शराब के दरिया दिखलाए जाते है।  यहाँ तो हुस्न को छुपाते पर्दे की आड़ में वे नादाँ हूरो के हुस्न से बहलाए जाते है।  जो जीते है तमाम उम्र तपन में उमस में वे जहन्नुम की आग से दहलाए जाते है।  हैवन, स्वर्ग,जन्नत कहो या कहो बहिश्त मासूम दिल कुछ यूँही बरगलाए जाते है।  अगर संतुष्ट हो तो घर भी जन्नत ही है भटकने वाले तो यूँ भी भरमाये जाते है।  वो परम् तो मौजूद है तुम में और मुझ में और हम यूँही बेवजह घबराये जाते है।