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पुस्तक समीक्षा

किसी भी पुस्तक को पढ़ने से पहले हर पाठक को ये बात ध्यान रखनी चाहिए कि वो उस पुस्तक को एक छात्र की तरह पढ़े। अपने मन मस्तिष्क पर किसी भी तरह की विचारधारा को दूर हटाकर एक छात्र की तरह अध्ययन करने पर ही हम किताब में परोसी गईं विषयवस्तु के साथ न्याय कर सकते है।ये ही बात लेखक पर भी लागू होती है कि जब वो किसी भी प्रकार का रचनाकर्म करे तो उसका मन मस्तिष्क कोरी सफेद दीवार जैसा हो जिस पर किसी भी विचारधारा की कील न ठुकी हो। परन्तु ये एक आदर्श स्थिति की बात है अनुममन कभी पाठक चूक जाता है,कभी लेखक अपने कर्तव्य का निर्वाह नही कर पाता। 
कुछ ऐसा ही घटित हुआ है "शिवना प्रकाशन,सीहोर,मध्यप्रदेश" द्वारा प्रकाशित पुस्तक। 
*जिन्हें जुर्म ए इश्क पे नाज़ था* के साथ। 
पंकज सुबीर द्वारा लिखी गई ये पुस्तक खैरपुर नामक एक काल्पनिक कस्बे की कहानी है जिसमे प्राइवेट कोचिंग सेंटर चलाने वाले रामेश्वर को मुख्य पात्र के रूप में रखकर विभिन्न पात्रो औऱ घटनाओं को दिखाने का प्रयास किया गया है। 
कमलेश्वर की "कितने पाकिस्तान" के बाद इस तरह के कई प्रयोग हुए है जिसमे वर्तमान और अतीत को मिलाकर एक कहानी कहने की कोशिश की गई है। पंकज सुबीर ने अपनी इस किताब में खैरपुर में हुए हिंदू-मुस्लिम दंगो के इर्द गिर्द अपनी कहानी कहने का प्रयास किया है। 
तीनो अब्राहमिक धर्मो यानी इस्लाम,इसाई और यहूदी की उतपत्ति,विकास,संघर्ष और येरूसलम की इन धर्मो में क्या भूमिका और महत्व है से शुरू हुई बात अतीत की कइयो महत्वपूर्ण घटनाओं को समेटते हुए धाराप्रवाह तरीके से चलती है तथा पाठक को बांधे रखती है। 
गांधीवाद को पुरजोर तरीके से स्थापित करने के प्रयास में लेखक कही न कही दूसरी विधारधाराओ के साथ अन्याय भी कर बैठता सा प्रतीत होता है। 
गांधी को श्रेष्ठ सिद्ध करते करते जिन्ना को भी मासूम बना दिया गया है। पाकिस्तान के निर्माण के लिए जिन्ना को जिम्मेदार नहीं ठहराते हुए भारतीय राजनेताओं को जिम्मेदार ठहराया गया है। 
हिंदू मुस्लिम दंगो पर इतिहास से लेकर आज तक की बात करने वाले पंकज सुबीर को कभी भी सिख विरोधी दंगे या कश्मीरी पंडित याद न आना ही इस बात का घोतक है कि लेखक निष्पक्ष नही है। औऱ किसी भी किताब की कामयाबी या नाकामयाबी लेखक के निष्पक्ष होने पर ही निर्भर करती है। 
पुस्तक के सभी पात्र शिक्षक रामेश्वर के शिष्य है
जो नितांत आज्ञाकारी तो है ही अपने गुरु की विचारधारा से पूर्णतः प्रभावित भी है। 
गुरु शिष्य परंपरा की ऐसी आदर्श स्थिति आज के अतिआधुनिक युग मे मिलना बेहद कठिन है। 

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