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Showing posts from October, 2024

गजल

छत,दीवार,दरवाजे बगावत करते है क्या क्या सभाले नीव का पत्थर आखिर। वो तीर,तलवार,खंजर सब मेरे लिए है भला कब तक बचाये कोई सर आखिर।  इस मरुथल में दूर तक साया ही नही वोही जाने कैसे तय होगा सफर आखिर।  इस शहर में अपने गांव वाली बात नही इतने जतन से भी मेरा न हुआ शह्र आखिर। जो आये और भिगो दें मेरे अंतस को न जाने कब आयेगीं वो लहर आखिर। टूटता ही जा रहा हूँ अनगिनत टुकड़ो में पता ही नहीं होगी कब उसकी महर आखिर।  वो कहते है जिंदगी अमृत के समान है इससे तो बहुत बेहतर होगा जहर आखिर। 
मन के दर्पण में यदि आप सुंदर हो तो आप से सुंदर कोई नही।