Skip to main content

Posts

Showing posts from May, 2025

गजल

आवरण में है छुपे विष के चेहरे कोई कैसे जान पाए भेद गहरे। एक छटपटाहट गहराई में गर्त है तभी किनारो से लड़ रही है लहरे।  इस शहर को अब सवांरा जाएगा ये मुनादी कर रहे है लोग बहरे।  एक अजब ही दौड़ जारी है यहाँ कोई आखिर सुकूँ से कैसे ठहरे। इक अदद सी कामयाबी के लिए कितनो को पहनाऊँ यहाँ सेहरे।  क़ायनात पे गर बस उनका चलता वो लगा देते हमारी सासों पे पहरे।