"मृत्यु का मोल"
( व्यंग्य कविता)
अंजान मरे —
तो चुपचाप साइड से निकल लो,
ना आँसू, ना सवाल —
बस भीड़ में खुद को बचा लो।
पड़ोसी मरे —
तो पूछ लो संस्कार का समय,
कंधा न सही,
कम से कम दिखा दो थोड़ा नमन।
जान-पहचान वाला गया —
तो फेसबुक पर "ॐ शांति" लिख दो,
दिल से नहीं,
टाइपिंग स्पीड से दुख नाप लो।
कोई अपना गया —
तो आँसू भी प्रॉपर्टी के वजन से गिरते हैं,
ग़म भी वसीयत के काग़ज़ों में
सुकून ढूंढता फिरता है।
और जब आप मरें —
तो सोचो,
कौन रोएगा सच में?
कौन होगा जो तुम्हारे बिना
रातों को जागेगा?
मौत तो सबकी बराबर होती है —
पर
इस दुनिया में
दुख भी रिश्तों के रैंक से बाँटा जाता है।
डॉ दिलीप बच्चानी
पाली मारवाड़,राजस्थान।
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