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गजल

जो थकता है थककर के चूर होता है
अपने कमाए हर निवाले पर उसे गुरुर होता है

जी तोड़ मेहनत कर जो अपना पेट भरता है
उसकी आँखों में जा कर देखना नूर होता है

क्या नशा देंगे प्याले मयकशी या जाम
मेहनतकशों की हर नस में सुरूर होता है

ना हटता ना ढिगता अटल फौलाद सा है वो
हाँ मै शान से कहता हूँ वो मगरूर होता है

ये चकाचोंध ये दिखावा ये बनावट का भरम
वो खुदा का नेक बंदा है वो इनसे दूर होता है

कंगूरे भले चमकते हो इमारत भले बुलन्द दिखे
चमकती इमारतो की नींव एक मजदूर होता है
                    
                       दिलीप बच्चानी
                       पाली मारवाड़ राजस्थान

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