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दांव पर द्रोपदी

दांव पर द्रोपदी (लघुकथा)

बिना किसी पर्वसूचना के सुरभि का यूँ अचानक मायके आ जाना प्रोफेसर गुप्ता और उनकी पत्नी दोनों को ही अजीब लग रहा था।
राकेश(सुरभि के पति) से भी सम्पर्क करने का प्रयास किया पर सफलता नही मिली।
उदास गुमसुम सुरभि भी कुछ कहने को तैयार न थी।
शाम को चाय के बाद प्रोफेसर साहब ने बड़े प्यार से सुरभि के सर पर हाथ फेरते हुए कहा ऐसी क्या बात है बेटा जो तुम इतनी परेशान हो और अपने मम्मी पापा को भी नही बता रही।
दो मिनट आँखे बंद करने के बाद गहरी सांस लेते हुए।
पापा आप तो जानते है इन्हें क्रिकेट का कितना शौक है।
हाँ जनता हूँ वो तो क्रिकेट का दीवाना है।
बस वही शौक हमारी बर्बादी का कारण बन गया।
सुरभि का गला रुंध गया तो माँ ने पानी पिलाया।
आई पी एल के मैचों में सट्टा लगा लगा कर सब बर्बाद कर दिया।
पुरखो की जमी जमाई दुकान मकान सब गिरवी जो गए। मेरे सारे जेवर सब बिक गए पर मैने कभी आपको कुछ नही बताया।
एक उम्मीद थी शायद ठोकर खाकर सुधर जाएंगे।
पर उस दिन के के आर और सी एस के वाले मैच में उन्हें बहुत बड़ा घाटा हुआ और वो नशे में बेसुध कमरे में पड़े थे।
तभी रात में क्रिकेट पर सट्टा लगाने वाला बुकी(दलाल) घर आया ओर मुझसे ....
सुरभि जार जार रोये जा रही थी।
माँ ने ढाढस बंधाया पानी पिलाया।
मै खुद को दांव पर नही लगाना चाहती थी
इसलिए भागकर यहाँ चली आई।
        
                    ©डॉ दिलीप बच्चानी
                    पाली मारवाड़,राजस्थान
                    9829187615(M)

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  1. कटुसत्य आज की चकाचोन्द दुनिया का

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