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भीड़ का मनोविज्ञान

भीड़ का मनोविज्ञान। 

हमारे यहाँ धार्मिक, सामाजिक,राजनैतिक आयोजनों में एकत्रित भीड़ की संख्या को देखकर उसकी सफलता या असफलता का अनुमान लगाया जाता है। 

फलां तिथि को इस मंदिर में लख्खी मेला भरता है पैर रखने तक कि जगह नही होती,दर्शनों के लिये कई कई घण्टो की कतारें लगती है। 
जुम्मे की नमाज के दिन इस मस्जिद के सामने की सारी सड़क नमाजियों से भरी रहती है। 
ट्रैफिक तक रोकना पड़ता है। 
इस दरगाह पर मनाये जाने वाले उर्स की तो शान ही निराली है दूर दूर से लोग जियारत करने आते है। 
अभी तो गुरु पर्व का सीजन चल रहा है हर कोई गुरु के दर पर मत्था टेकना चाहता है इसलिए सभी ट्रेन बुक चल रही है। 
क्रिसमस के टाइम में कार्निवाल का आयोजन होता है बड़ी तो क्या किसी छोटी सी लॉज में भी कमरा नही मिलेगा। 
न्यू ईयर पर सड़को पर निकलने वाली भीड़ हो या क्रिकेट के दीवानों का हुजूम। 

क्या सभी त्यौहार, उत्सव,उल्लास के पल केवल भीड़ में ही मनाये जा सकते है। 
क्या किसी विशेष तिथि को ही भगवान के दर्शन करना आवश्यक है या सिर्फ जुम्मे को ही नमाज कुबूल होती है अन्य दिन नही। 
चर्च तो रोज खुला है फिर रविवार का इंतजार किस लिए। 

कितने ही लोग भीड़ में भगदड़ में चोटिल होते है कइयों अपने प्राण गवाते है पर भीड़ हर आयोजन दर आयोजन बढ़ती ही जाती है। 

बदलते विश्व परिदृश्य में हमे इस पर गहन विचार की आवश्यकता है। 

सोशल डिस्टेंशिंग केवल कोरोना तक ही सीमित न रहकर हम हमारे मूलभूत आचरण का हिस्सा बना ले ये ही आज की आवश्यकता है। 

डॉ दिलीप बच्चानी।

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