लंच टाइम पर ऑफिस के सभी सहकर्मी एक ही टेबल पर अपने अपने टिफिन लेकर बैठे थे, सामने टीवी पर जोशीमठ से जुड़ी खबरे दिखाई जा रही थी।
कुछ परिवारों को विस्थापित कर दूसरी जगह भेजने की बात चल रही थी तो कुछ मकानों और होटलों को ध्वस्त करने की।
इन खबरों को देख स्वाति कुछ खो सी गई उसकी आँखों मे गीलापन मगसूस किया जा सकता था।
बगल में बैठी सहकर्मी ने स्वाति की ओर देखा।
अरे!स्वाति क्या हुआ तू क्यों उदास हो रही है,तू जोशीमठ में नही गुरुग्राम में है।
स्वाति गला साफ करते हुए बोली,कुछ नही बस बचपन याद आ गया।
हमारा परिवार भी टिहरी गढ़वाल से ऐसे ही विस्थापित किया गया था, अपना सब कुछ पीछे छोड़ कर मुठ्ठीभर सरकारी मदद के सहारे हमे नए शहर में रहने को मजबूर कर दिया गया।
विस्थापन चाहे सामाजिक हो,आर्थिक,हो,राजनीतिक हो या फिर प्राकृतिक होता बहुत ही पीड़ादायक है।
विस्थापन से केवल किसी का एड्रेस नही बदलता बल्कि उसका पूरा सामाजिक तानाबाना और संस्कृति बदल जाती है।
इन जोशीमठ वालो की पीड़ा या मैं महसूस कर सकती हूँ या फिर कौल साहब।स्वाति ने कौल साहब की तरफ इशारा करते हुए कहा इन्होंने भी कश्मीर जैसी स्वर्ग समान धरती को मजबूरन छोड़ा है।
कौल साहब कुछ कह न सके,उन्होंने स्नेह पूर्वक स्वाति के सर पर हाथ फेरा।
सामने की तरफ बैठे ललवाणी साहब की आँखे भी नम हो चली।
उन्हें भी बंटवारे और सिंध से विस्थापन से जुड़ी कहानियां जो उनके दादा जी सुनाते थे याद आ गई थी।
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