ये साल देश के लिए नई सरकार चुनने का साल है।साल शुरू होते ही चुनावी गतिविधियों में भी तेजी देखी जा सकती है।
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में चुनाव विभिन्न स्तरों पर लड़े जाते है जैसे कि लोकसभा, विधानसभा,नगर निगम,पंचायत आदि,सत्ता के विकेंद्रीकरण का ये एक बेहतरीन उदाहरण भी है।
अब चूंकि लोकसभा का चुनाव निकट है तो स्वाभाविक है कि चर्चा का केंद्र बिंदु केंद्रीय चुनाव ही रहने वाला है।
एक लोकसभा सदस्य का कार्यक्षेत्र बहुत बड़ा और बहुत फैला हुआ होता है,इसलिए चुनाव प्रचार के दौरान या उसके बाद के पांच वर्षों में भी सभी क्षेत्रों और मतदाताओं तक पहुँचना अत्यंत दुष्कर कार्य है।
तो फिर हार और जीत आखिर तय कैसे होती है
ये सब तय होता है परसेप्शन के आधार पर।
परसेप्शन उम्मीदवार के पक्ष और विपक्ष में हो सकता है और परसेप्शन सरकार के पक्ष और विपक्ष में भी हो सकता है।
सरकार अपने कार्यकाल के दौरान जो फैसले लेती है उस आधार पर मतदाता अपने दिलोदिमाग में एक धारणा बना लेता है और फिर उसी आधार पर वोट पड़ते है और हार जीत का निर्णय हो जाता है।
इसलिए हम देखते है कि हमारी अपनी लोकसभा या हमारे आसपास की लोकसभा की सीटों पर कइयो बार ऐसे प्रत्याशी जीत जाते है जिन्हें वहा के स्थानीय लोग जानते भी नही थे।
जबकि विधानसभा चुनाव में ऐसा नहीं होता वहा पर जनता उन लोगों को चुनती है जिन्हें वो जानती पहचानती है या जिन तक आसानी से पहुच सकती है।
और स्थानीय स्तर के चुनाव जैसे कि नगर पालिका,पंचायत आदि में तो लोग राष्ट्रीय पार्टियों को नजरअंदाज करके क्षेत्रीय पार्टियों या निर्दलीय प्रत्याशियों को भी चुन लेते है,क्योकि छोटे मोटे कामो के लिए उन्हें पार्षद,सरपंच आदि से निरंतर सम्पर्क में रहना जरूरी होता है।
लोकसभा प्रत्याशी या सरकार के पक्ष और विपक्ष में बना परसेप्शन सभी राज्यो में एक सा हो ऐसा भी जरूरी नही है,कई राज्यो में हम देखते है कि राष्ट्रीय पार्टियां उतनी मजबूत नही होती जितनी कि क्षेत्रीय पार्टियां होती है,क्योकि वहा का जनमानस सोचता है कि हमारे क्षेत्र की पार्टी ही हमारे हित के बारे में सोच सकती है।
अब देखना ये है कि इस बार जनता जनार्दन ने अपने मानस पटल पर क्या परसेप्शन बनाया है।
बहरहाल नतीजा जो भी हो, ऊँट चाहे जिस करवट बैठे पर चुनाव के इस पंचवर्षीय उत्सव में जनभागीदारी बढ़चढ़ कर हो और हम सभी अपने मताधिकार का प्रयोग अवश्य करे।
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