भारतीय राजनीति में हम अक्सर देखते है कि एक पार्टी के सदस्य दूसरी पार्टी में चले जाते है।
चुनाव के समय ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़ जाती है,परंतु कमोबेश ये एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है।
दलबदल के इतिहास की बात करे तो सबसे पुरानी घटना कुरुक्षेत्र में महाभारत के युद्ध के प्रारंभ के समय हुई थी, जब ज्येष्ठ पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर ने आव्हान किया कि दोनों पक्षों में से कोई भी योद्धा पाला बदलना चाहता है तो बदल सकता है तब कौरव पक्ष के युयुत्सु ने पाला बदला था और धर्मराज युधिष्ठिर के पक्ष में युद्ध लड़ने का निर्णय लिया।
दलबदल के कारणों की बात करे तो सबसे बड़ा एक ही कारण नजर आएगा और वो है सत्ता सुख का स्वार्थ।
नगर परिषद के पार्षदों से लेकर विधानसभा सदस्यों,लोकसभा सदस्यों तक ये सभी केवल और केवल सत्ता सुख के लोभ में पाला बदलते है।
बड़े से बड़े सिद्धांत,निष्ठाएँ रातो रात धूलधूसरित हो जाती है।
कभी टिकट कटने के कारण, कभी टिकट कटने की संभवना के कारण,कभी पार्टी द्वारा उपेक्षा के कारण ये नेतगण सुविधा अनुसार अपनी निष्ठाएँ
बदलते रहते है।
दलबदल का एक कारण अधिकांश राजनीतिक दलों में व्याप्त परिवारवाद भी है क्योंकि उन्हें अपने परिवार के सदस्यों को टिकट देकर नेता बनाना होता है तो निष्ठावान कर्मठ कार्यकर्ताओ की अवहेलना हो जाती है और वो दलबदलने को मजबूर हो जाते है।
कोई कहि भी जाये जनता को इस से क्या लेना देना,ऐसा अमूमन कहा जाता है, परंतु जनता का इससे सीधा सबंध है क्योंकि अस्थिर सरकारे कभी भी मजबूत निर्णय नही ले सकती और वो अपने अस्तित्व के संघर्ष से जूझती रहती है।
दलबदलने की ये बीमारी भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक नासूर की तरह है जिससे समस्या तो सभी को है पर समाधान कोई करना नही चाहता,क्योकि इसी का सहारा लेकर सरकारें बनाई और गिराई जाती है।
राजनीति दल इस समस्या का निराकरण कभी नही करेंगे,इसके लिए चुनाव आयोग को ही सख्त फैसले लेने होंगे,जिससे मतदाता के मत सम्मान मिले और उसे चोरी होने से बचाया जा सके।
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