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महाकुंभ।

पापा! काश आप भी चले होते प्रयागराज। 
एक तरफ श्वेत गंगा की सरिता और दूसरी ओर माँ कालिंदी। 
तभी छोटी बिटिया ने उत्साह से कहा,
और भीड़ इतनी की जिसका बयां करना कठिन है। 
अरे! छोड़ो भी बच्चों, ये आजतक शहर मे होने वाले रावण दहन और अन्य जुलूसों में भी नही जाते। 
पर क्यो पापा?
क्या अपको त्योहार अच्छे नहीं लगते। 

मैं क्या करूँ वहा जाकर। 
कुल्हे, कमर ऒर कंधे देखूं। 
क्योकि।
मै भीड़ का हिस्सा तो हो जाता हूँ पर भीड़ को भी नहीं देख पाता। 
"मैं ढिंगना जो हूँ"

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